दफ्तर में अपनी सीट पर बैठा जैगोपाल काफी परेशान था। बेटी शुशीला के पहला बच्चा होने वाला था। जब से पत्नी व माँ ने इस अवसर पर होने वाले खर्चे का ब्यौरा दिया था, उसकी नींद गायब हो गई थी। कम से कम सात हज़ार रुपये का खर्च था। अगर लड़का हुआ तो यह रकम दस हज़ार से भी अधिक हो सकती थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि बात यहाँ तक जा पहुँचेगी। खर्च तो घर का ही पूरा नहीं होता। लड़के के पास स्कूल की युनीफार्म नहीं, लड़की व पत्नी के पास पहनने को कोई ढंग का सूट नहीं। वह आप फटी कालर वाली कमीज पहन कर दफ्तर आता है। शादी तो मकान बेच के कर दी थी और साल भर के त्यौहारों पर दे दिया था कर्जा लेकर। अब वह इतना पैसा कहाँ से लाए?
‘जो होगा, देखा जाएगा। कोई न कोई हल निकल आएगा।’– सोचकर उसने काम की ओर ध्यान लगाने की कोशिश की। मेज की दराज से कागज निकाल कर वह संख्याओं का जोड़ करने लगा। दो और दो चार करते वक्त उसके घर की संख्या बीच में आकर गड़बड़ कर जाती। उसने कागज वापस दराज में रख दिए तथा सोचने लगा–‘अच्छा हो लड़की हो जाए, दो-तीन हजार तो बचेंगे।’
“बाबूजी, आपकी ट्रंककाल।”
चपरासी के शब्दों ने उसकी तंद्रा को भंग किया। ‘अवश्य ही यह फोन शुशीला की ससुराल से होगा’– यह सोच मन पर पड़ा बोझ पांवों पर आ गया। सर्दी के बावजूद पसीने की बूँदें उसके माथे पर चमक आईं। वह धीरे-धीरे कदम घसीटता हुआ टेलीफोन तक पहुँचा। रिसीवर कान से लगा उसने ठंडी और खुश्क आवाज में “हैलो!” कहा।
दूसरी ओर से सुशीला के श्वसुर की आवाज कान में पड़ी तो उसने हाथ से फिसलते रिसीवर को बड़ी कठिनाई से थामा। उसके दिल की धड़कन तेज हो गई। टांगें काँपने लगीं तो उसने पीठ दीवार से लगा ली।
“क्या कहा जी?” उसने ऊँची आवाज में पूछा, “बच्चा पैदा होने से पहले ही मर चुका था…यह तो बहुत ही…!” शेष शब्द उसके मुख में ही अटक गए। फुर्ती से वह अपनी सीट तक पहुँचा और अगले दिन के अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र लिखने लगा।