Friday, July 3, 2009

जीवन-गाथा















जीवन की पुस्तक
वर्षों से
मेज पर खुली पड़ी है
हवा चलती है तो
पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं
कुछ पन्नों से
किलकारियों की आवाज़ें
सुनाई देती हैं।
कुछ पन्नों से
खिलखिलाहट की आवाज़ें
भी आती हैं।
बर्फीली हवाओं के शिकार हुए
बहुत से पन्ने
सीलन की बदबू
आती रहती है उनसे।
कुछ पन्नों पर
गर्म हवाओं ने भी
छोड़े हैं निशान
जले-जले से लगते हैं
वे सब।
कुछ पन्नों पर
गर्मी का
कोई असर नहीं हुआ
खुलते हैं तो
आँसू टपक पड़ते हैं।
आँधियाँ भी
आती रहीं हैं
ख़ंजर लेकर
अनेक पन्ने
ज़ख़मी दिखाई देते हैं।
कुछ पन्ने
बच गए हैं
कोरे रह गए हैं
साफ-सफेद।
आस लगाए बैठे हैं
कभी न कभी
महक भरी
शीतल हवा आएगी
अपने प्यारे नरम हाथों से
धीमे-धीमे सहलाएगी
गुलाब की पंखड़ियाँ
अपने निशान छोड़ेंगी
सारी महक
इन पन्नों में
समा जाएगी।
*****

2 comments:

ओम आर्य said...

इतने खुब्सूरत पंक्तियाँ........जो दिल को छूते हुये गुजर गयी..........बहुत खुब

शारदा अरोरा said...

कमाल है , जीवन की किताब के सफ्हे बड़ी सफाई से बयान किये हैं