Monday, December 14, 2009

खुशखबरी



दफ्तर में अपनी सीट पर बैठा जैगोपाल काफी परेशान था। बेटी शुशीला के पहला बच्चा होने वाला था। जब से पत्नी व माँ ने इस अवसर पर होने वाले खर्चे का ब्यौरा दिया था, उसकी नींद गायब हो गई थी। कम से कम सात हज़ार रुपये का खर्च था। अगर लड़का हुआ तो यह रकम दस हज़ार से भी अधिक हो सकती थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि बात यहाँ तक जा पहुँचेगी। खर्च तो घर का ही पूरा नहीं होता। लड़के के पास स्कूल की युनीफार्म नहीं, लड़की व पत्नी के पास पहनने को कोई ढंग का सूट नहीं। वह आप फटी कालर वाली कमीज पहन कर दफ्तर आता है। शादी तो मकान बेच के कर दी थी और साल भर के त्यौहारों पर दे दिया था कर्जा लेकर। अब वह इतना पैसा कहाँ से लाए?
‘जो होगा, देखा जाएगा। कोई न कोई हल निकल आएगा।’– सोचकर उसने काम की ओर ध्यान लगाने की कोशिश की। मेज की दराज से कागज निकाल कर वह संख्याओं का जोड़ करने लगा। दो और दो चार करते वक्त उसके घर की संख्या बीच में आकर गड़बड़ कर जाती। उसने कागज वापस दराज में रख दिए तथा सोचने लगा–‘अच्छा हो लड़की हो जाए, दो-तीन हजार तो बचेंगे।’
“बाबूजी, आपकी ट्रंककाल।”
चपरासी के शब्दों ने उसकी तंद्रा को भंग किया। ‘अवश्य ही यह फोन शुशीला की ससुराल से होगा’– यह सोच मन पर पड़ा बोझ पांवों पर आ गया। सर्दी के बावजूद पसीने की बूँदें उसके माथे पर चमक आईं। वह धीरे-धीरे कदम घसीटता हुआ टेलीफोन तक पहुँचा। रिसीवर कान से लगा उसने ठंडी और खुश्क आवाज में “हैलो!” कहा।
दूसरी ओर से सुशीला के श्वसुर की आवाज कान में पड़ी तो उसने हाथ से फिसलते रिसीवर को बड़ी कठिनाई से थामा। उसके दिल की धड़कन तेज हो गई। टांगें काँपने लगीं तो उसने पीठ दीवार से लगा ली।
“क्या कहा जी?” उसने ऊँची आवाज में पूछा, “बच्चा पैदा होने से पहले ही मर चुका था…यह तो बहुत ही…!” शेष शब्द उसके मुख में ही अटक गए। फुर्ती से वह अपनी सीट तक पहुँचा और अगले दिन के अवकाश के लिए प्रार्थना-पत्र लिखने लगा।
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Saturday, November 21, 2009

मरुस्थल के वासी



श्याम सुन्दर अग्रवाल

गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्री जी ने कहा, “ इस वर्ष देश में भयंकर सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सब सप्ताह में कम से कम एक दिन का उपवास रखें।”
मंत्री जी के सुझाव का लोगों ने तालियां बजा कर स्वागत किया।
“हमीं तो हफ्ता मैं दो दिन भी भूका रहन नै तैयार साँ।” एकत्रित लोगों के आगे खड़े एक व्यक्ति ने कहा।
मंत्री जी उसकी बात सुन कर बहुत प्रभावित हुए व बोले, “जिस देश में आप जैसे देशभक्त लोग हों, वह देश कभी भूखा नहीं मर सकता।”
मंत्री जी जाने लगे तो उन्हें लगा जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिन्ह बन गए हैं।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, “आप लोगों को कोई शंका हो तो निःसंकोच उसका समाधान कर लें।”
थोड़ी झिझक के बाद एक वृद्ध बोला, “सरकार, हमनै बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा?”
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Sunday, September 27, 2009

ਜ਼ਰੂਰੀ ਸ਼ਰਤ



ਦਲਾਲ ਮੰਗਤ ਰਾਮ ਸੋਹਨ ਲਾਲ ਦੀ ਬੇਟੀ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤੇ ਲਈ ਨਿੱਤ ਨਵੇਂ ਮੁੰਡੇ ਦਾ ਬਿਉਰਾ ਲੈ ਕੇ ਆਉਂਦਾ, ਪਰ ਸੋਹਨ ਲਾਲ ਕੋਈ ਨਾ ਕੋਈ ਕਮੀ ਦੱਸ ਕੇ ਉਸ ਨੂੰ ਪਰਵਾਨ ਕਰਨ ਤੋਂ ਨਾਂਹ ਕਰ ਦਿੰਦਾ। ਕੋਈ ਘੱਟ ਪੜ੍ਹਿਆ ਲਿਖਿਆ ਹੁੰਦਾ, ਕਿਸੇ ਦਾ ਕੰਮ ਧੰਦਾ ਠੀਕ ਨਾ ਹੁੰਦਾ ਤੇ ਕਿਸੇ ਦਾ ਪਰਿਵਾਰ ਬਹੁਤ ਵੱਡਾ ਹੁੰਦਾ।

ਇਕ ਦਿਨ ਮੰਗਤ ਰਾਮ ਬੋਲ ਹੀ ਪਿਆ, ਆਹ ਏਨਾ ਵਧੀਆ ਰਿਸ਼ਤਾ ਐ। ਮੁੰਡਾ ਪੜ੍ਹਿਆ ਲਿਖਿਆ, ਕਮਾਊ, ਕੰਮ ਧੰਦਾ ਵਧੀਆ। ਮਾਂ ਪਿਓ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਘਰ ’ਚ ਇਕ ਛੋਟਾ ਭਰਾ ਈ ਐ, ਯਾਨੀ ਨਿੱਕਾ ਜਿਆ ਪਰਵਾਰ। ਹੋਰ ਤੁਹਾਨੂੰ ਕੀ ਚਾਹੀਦੈ?

ਇਹ ਰਿਸ਼ਤਾ ਸਾਡੀ ਇਕ ਜ਼ਰੂਰੀ ਸ਼ਰਤ ਪੂਰੀ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ।ਸੋਹਨ ਲਾਲ ਬੋਲਿਆ।

ਕਿਹੜੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਸ਼ਰਤ?

ਪਰਵਾਰ ’ਚ ਇਕ ਕੁੜੀ ਜ਼ਰੂਰ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਐ। ਏਥੇ ਨਾ ਮੁੰਡੇ ਦੀ ਭੈਣ, ਨਾ ਭੂਆ। ਜੇ ਘਰ ’ਚ ਕੁੜੀ ਈ ਨਾ ਹੋਈ ਤਾਂ ਉਹ ਸਾਡੀ ਕੁੜੀ ਦਾ ਦੁਖ ਦਰਦ ਕੀ ਸਮਝਣਗੇ?

ਨਾ ਜੇ ਕਿਸੇ ਘਰ ਕੁੜੀ ਜੰਮੇ ਈ ਨਾ…?

ਜੰਮੇ ਈ ਨਾ…! ਦੋਹਾਂ ਭਰਾਵਾਂ ਦੀ ਉਮਰ ’ਚ ਦਸ ਸਾਲ ਦਾ ਫਰਕ ਐ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਲਾਂ ’ਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਕੁੜੀਆਂ ਈ ਮਾਰੀਆਂ ਹੋਣੀਐਂ।

ਸੋਹਨ ਲਾਲ ਦੀ ਦਲੀਲ ਸੁਣ ਮੰਗਤ ਰਾਮ ਨੂੰ ਮੁੰਡੇ ਦੀ ਤਾਰੀਫ ਵਿਚ ਕਹਿਣ ਲਈ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਸੁੱਝਿਆ।

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Friday, September 18, 2009

मकान


मकान को देखकर किराएदार बहुत खुश हो रहा था। उसने कभी सोचा भी न था कि शहर में इतना बढ़िया मकान किराए के लिए खाली मिल जाएगा। सब कुछ बढ़िया था–बेडरूम, ड्राइँगरूम, किचन। कहीं भी कोई कमी नहीं थी।

छत तो पक्की होगी?उसने मकान-मालिक से प्रश्न किया।

हाँ जी, बिलकुल पक्की! ऊपर पानी की टंकी भी है। आप जाकर देख आओ।

किराएदार सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। अब वह निराश था।

अच्छा जी, आपको तकलीफ दी। मकान तो बहुत बढ़िया है, पर मैं यहाँ नहीं रह सकता।

मकान-मालिक ने कहा, आपको कोई वहम तो नहीं हो गया? मकान में भूत नहीं है और न ही कोई पुलिस-चौकी इसके आसपास है।

किराएदार ने जब पीछे पलटकर नहीं देखा तो मकान-मालिक ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया, मकान तो चाहे आप किराए पर न लो, लेकिन यह तो बता दो कि इसमें कमी क्या है? लोग तो कहते हैं कि शहर में मकानों का अकाल-सा पड़ गया है, पर यहाँ इतना बढ़िया मकान खाली पड़ा है।

मकान-मालिक पूरे का पूरा प्रश्नचिन्ह बनकर किराएदार के सामने खड़ा था।

किराएदार ने मकान-मालिक से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, आपको पता नहीं है कि आपका मकान घर के योग्य नहीं है। इसके एक तरफ गुरुद्वारा है और दूसरी तरफ मंदिर।

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Tuesday, August 18, 2009

रिश्ते










विश्वास का मौसम
ज़रूरत की धरती
’गर मिलें तो
उग ही जाते हैं रिश्ते।
लंबा हो मौसम
हो ज़रख़ेज़ धरती
तो बढ़ते हैं, फलते हैं
खिलखिलाते हैं रिश्ते।
बदले जो मौसम
बदले जो माटी
तो पौधों की भाँति
मर जाते हैं रिश्ते।
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Wednesday, August 5, 2009

उत्सव



सेना और प्रशासन की दो दिनों की जद्दोजेहद अंतत: सफल हुई। साठ फुट गहरे बोरवैल में फंसे नंगे बालक प्रिंस को सही सलामत बाहर निकाल लिया गया। वहाँ विराजमान राज्य के मुख्यमंत्री एवं जिला प्रशासन ने सुख की साँस ली। बच्चे के माँ-बाप व लोग खुश थे।
दीन-दुनिया से बेखबर इलैक्ट्रानिक मीडिया दो दिन से निरंतर इस घटना का सीधा प्रसारण कर रहा था। मुख्यमंत्री के जाते ही सारा मजमा खिंडने लगा। कुछ ही देर में उत्सव वाला माहौल मातमी-सा हो गया। टी.वी. संवाददाताओं के जोशीले चेहरे अब मुरझाए हुए लग रहे थे। अपना साजोसामान समेट कर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता के पास समीप के गाँव का एक युवक आया और बोला, “हमारे गाँव में भी ऐसा ही…”
युवक की बात पूरी होने से पहले ही संवाददाता का मुरझाया चेहरा खिल उठा, “क्या तुम्हारे गाँव में भी बच्चा बोरवैल में गिर गया?”
“नहीं।”
युवक के उत्तर से संवाददाता का चेहरा फिर से बुझ गया, “तो फिर क्या?”
“हमारे गाँव में भी ऐसा ही एक गहरा गड्ढा नंगा पड़ा है,” युवक ने बताया।
“तो फिर मैं क्या करूँ?” झुँझलाया संवाददाता बोला।
“आप महकमे पर जोर डालेंगे तो वे गड्ढा बंद कर देंगे। नहीं तो उसमें कभी
भी कोई बच्चा गिर सकता है।”
संवाददाता के चेहरे पर फिर थोड़ी रौनक दिखाई दी। उसने इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, “ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवैल में गिरे मुझे इस नंबर पर फोन कर देना। किसी और को मत बताना। मैं तुम्हें इनाम दिलवा दूँगा।”
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Tuesday, July 21, 2009

ਜੋਧਾ



ਜਿਸ ਦਾ ਡਰ ਸੀ, ਉਹੀ ਹੋਇਆ। ਕਾਲੇ ਕੋਟ ਵਾਲਾ ਟਿਕਟਚੈੱਕਰ ਜਮਦੂਤ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਖੜਾ ਸੀ। ਮੇਰਾ ਟਿਕਟ ਵੇਖਦਿਆਂ ਹੀ ਉਹ ਬੋਲਿਆ, “ਇਹ ਤਾਂ ਆਰਡਨਰੀ ਕਲਾਸ ਦਾ ਹੈ। ਸਲੀਪਰ ਕਲਾਸ ’ਚ ਕਿਉਂ ਬੈਠੇ ਹੋ?”
“ਆਰਡਨਰੀ ਕਲਾਸ ਦੇ ਤਾਂ ਦੋ ਹੀ ਡੱਬੇ ਹਨ। ਦੋਨੋਂ ਨੱਕੋ-ਨੱਕ ਭਰੇ ਹਨ। ਉੱਥੇ ਤਾਂ ਖੜੇ ਹੋਣ ਨੂੰ ਵੀ ਜਗ੍ਹਾ ਨਹੀਂ। ਸਲੀਪਰ ਕਲਾਸ ’ਚ ਜਗ੍ਹਾ ਸੀ। ਉਂਜ ਵੀ ਦਿੱਲੀ ਤੋਂ ਅੱਗੇ ਇਸ ’ਚ ਰਿਜਰਵੇਸ਼ਨ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ।” ਮੈਂ ਸਪਸ਼ਟੀਕਰਨ ਦਿੱਤਾ।
“ਇਹ ਕੋਈ ਬਹਾਨਾ ਨਹੀਂ। ਸਲੀਪਰ ਕਲਾਸ ਦਾ ਕਿਰਾਇਆ ਤੇ ਜੁਰਮਾਨਾ ਮਿਲਾ ਕੇ ਇਕ ਸੌ ਦਸ ਰੁਪਏ ਹੋਏ, ਛੇਤੀ ਕੱਢੋ।” ਟਿਕਟ ਚੈੱਕਰ ਕਾਹਲਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਸੀ।
“ਸਾਰਿਆਂ ਕੋਲ ਹੀ ਆਰਡਨਰੀ ਕਲਾਸ ਦਾ ਟਿਕਟ ਹੈ…”
“ਤੁਸੀਂ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਕਰੋ।” ਚੈੱਕਰ ਕੁਝ ਸੁਣਨ ਨੂੰ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮਜਬੂਰੀਵਸ ਮੈਂ ਜੇਬਾਂ ਫਰੋਲਣ ਲੱਗਾ। ਪੈਸੇ ਮਿਲਣ ਵਿਚ ਦੇਰੀ ਹੁੰਦੀ ਵੇਖ ਉਹ ਸਾਹਮਣੇ ਬੈਠੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਦੀ ਟਿਕਟ ਵੇਖਣ ਲੱਗਾ।
“ਤੁਹਾਡਾ ਵੀ ਆਰਡਨਰੀ ਟਿਕਟ ਐ। ਤੁਸੀਂ ਵੀ ਕੱਢੋ ਇਕ ਸੌ ਦਸ ਰੁਪਏ।”
“ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਕੋਈ ਪੈਸਾ ਨਹੀਂ ਦੇਣ ਲਈ।” ਬਜ਼ੁਰਗ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਵਿਚ ਦਮ ਸੀ।
“ਜੁਰਮਾਨਾ ਨਹੀਂ ਭਰੋਗੇ ਤਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਜੇਲ ਵੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ।” ਚੈੱਕਰ ਨੇ ਪਿੱਛੇ ਆ ਖੜੇ ਹੋਏ ਸਿਪਾਹੀ ਨੂੰ ਵੇਖਦਿਆਂ ਡਰਾਵਾ ਦਿੱਤਾ।
“ਕਿਸ ਜੁਰਮ ਲਈ?”
“ਆਰਡਨਰੀ ਕਲਾਸ ਦੇ ਟਿਕਟ ’ਤੇ ਸਲੀਪਰ ਕਲਾਸ ’ਚ ਸਫਰ ਕਰਨ ਲਈ।”
“ਤੁਸੀਂ ਮੈਨੂੰ ਆਰਡਨਰੀ ਡੱਬੇ ’ਚ ਸੀਟ ਦਿਵਾ ਦਿਓ।”
“ਇਹ ਮੇਰੀ ਜਿੰਮੇਵਾਰੀ ਨਹੀਂ।”
“ਰੇਲਵੇ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਟਿਕਟ ਕਿਸ ਲਈ ਜਾਰੀ ਕੀਤਾ ਹੈ?”
“ਇਹ ਟਿਕਟ ਕੇਵਲ ਇਸ ਗੱਡੀ ਦੀ ਆਰਡਨਰੀ ਕਲਾਸ ’ਚ ਸਫਰ ਕਰਨ ਦੀ ਇਜਾਜ਼ਤ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਸੀਟ ਦਾ ਮਿਲਣਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ।” ਚੈੱਕਰ ਨੇ ਇਕ ਇਕ ਸ਼ਬਦ ਉੱਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿੰਦਿਆਂ ਕਿਹਾ।
“ਕੀ ਮੈਂ ਗੱਡੀ ਦੀ ਛੱਤ ’ਤੇ ਬੈਠ ਕੇ ਸਫਰ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ?” ਬਜ਼ੁਰਗ ਨੇ ਸਵਾਲ ਕੀਤਾ।
“ਛੱਤ ’ਤੇ ਬੈਠ ਕੇ ਸਫਰ ਕਰਨਾ ਤਾਂ ਇਸ ਤੋਂ ਵੀ ਵੱਡਾ ਜੁਰਮ ਹੈ।”
“ਕੀ ਮੈਂ ਦਰਵਾਜੇ ਨਾਲ ਲਮਕ ਕੇ ਸਫਰ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ?”
“ਨਹੀਂ, ਰੇਲਵੇ ਅਜਿਹਾ ਕਰਨ ਦੀ ਇਜਾਜ਼ਤ ਨਹੀਂ ਦਿੰਦੀ।”
ਬਜ਼ੁਰਗ ਹੌਲੇ ਜਿਹੇ ਖੜਾ ਹੋਇਆ ਤੇ ਉਸਨੇ ਟਿਕਟ ਚੈੱਕਰ ਦਾ ਹੱਥ ਫੜਦੇ ਹੋਏ ਕਿਹਾ, “ਮੈਨੂੰ ਗੱਡੀ ’ਚ ਉਸ ਥਾਂ ’ਤੇ ਛੱਡ ਆਓ, ਜਿੱਥੇ ਮੈਂ ਇਸ ਟਿਕਟ ਤੇ ਸਫਰ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੋਵਾਂ।”
ਟਿਕਟ ਚੈੱਕਰ ਨੂੰ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਸੁਝ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਉਸਨੇ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬਜ਼ੁਰਗ ਤੋਂ ਆਪਣਾ ਹੱਥ ਛੁਡਾਇਆ ਤੇ ਵਾਪਸ ਮੁੜ ਗਿਆ। ਇਕ ਸੌ ਦਸ ਰੁਪਏ ਦੇ ਨੋਟ ਮੇਰੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਫੜੇ ਰਹਿ ਗਏ।
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Sunday, July 5, 2009

आम आदमी







‘भला करो’

के दो शब्द ही

अपने धर्म में पाता है

जहाँ तक हो सके

निभाता है

आगे भी वही फैलाता है।

प्यार के लिए ही

समय पर्याप्त नहीं मिलता

नफ़रत के लिए

वक्त कहाँ निकाल पाता है।

किसी के दुख का

सबब न बने

कोई परेशान न हो

ठेस न पहुँचे

किसी मन को

और भावनाएँ

आहत न हो

यही प्रयास करता है

फिर भी

पता नहीं क्यों

ऐसा हो जाता है

कौन

गड़बड़ कर जाता है

फैसले के क्षण

वह

सदा स्वयं को ही

कटघरे में खड़ा पाता है।

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Friday, July 3, 2009

जीवन-गाथा















जीवन की पुस्तक
वर्षों से
मेज पर खुली पड़ी है
हवा चलती है तो
पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं
कुछ पन्नों से
किलकारियों की आवाज़ें
सुनाई देती हैं।
कुछ पन्नों से
खिलखिलाहट की आवाज़ें
भी आती हैं।
बर्फीली हवाओं के शिकार हुए
बहुत से पन्ने
सीलन की बदबू
आती रहती है उनसे।
कुछ पन्नों पर
गर्म हवाओं ने भी
छोड़े हैं निशान
जले-जले से लगते हैं
वे सब।
कुछ पन्नों पर
गर्मी का
कोई असर नहीं हुआ
खुलते हैं तो
आँसू टपक पड़ते हैं।
आँधियाँ भी
आती रहीं हैं
ख़ंजर लेकर
अनेक पन्ने
ज़ख़मी दिखाई देते हैं।
कुछ पन्ने
बच गए हैं
कोरे रह गए हैं
साफ-सफेद।
आस लगाए बैठे हैं
कभी न कभी
महक भरी
शीतल हवा आएगी
अपने प्यारे नरम हाथों से
धीमे-धीमे सहलाएगी
गुलाब की पंखड़ियाँ
अपने निशान छोड़ेंगी
सारी महक
इन पन्नों में
समा जाएगी।
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Wednesday, July 1, 2009

तुम्हारे नाम…












पत्र
जो मन से लिखे जाते हैं
वो कहाँ
तुम तक पहुँच पाते हैं।
पत्र तो
बहुत लिखता हूँ
पत्र तो
रोज लिखता हूँ
मगर पत्र
जब कागज़ पर लिखता हूँ
तब मस्तिष्क
नीचे उतर आता है
फिर उसी द्वारा
पत्र लिखा जाता है
मस्तिष्क
जो संवेदनहीन होता है
मस्तिष्क
जो तर्कशील होता है
वह
प्रवेशद्वार पर ही
प्रहरी बैठा देता है
आदरणीय, सादर, आभार
सरीखे अनेक हथियार
उन्हें थमा देता है
मन को पास नहीं
फटकने देता
उसे दूर, बहुत दूर
भगा देता है।
शब्द फिर सीधे
दिमाग से आते हैं
और पत्र पर
बिछते चले जाते हैं
शब्द
जो अनुशासन में बंधे होते हैं
शब्द
जो न गुनगुनाते हैं
शब्द
जो न गुदगुदाते हैं
पत्र बस
शब्दों का जंगल भर
नज़र आते हैं
ये पत्र
आँसुओं से भीगे
भी नहीं होते
आँसू
जो शब्दों का
रूप बदल देते हैं
आँसू
जो शब्दों के
अर्थ बदल देते हैं
तभी ये पत्र
न हंसते हैं
न मुस्कराते हैं
न रोते हैं
न रुलाते हैं
समाचार पत्र की तरह
बस डाक से जा कर
समाचार पहुँचाते हैं।
पत्र
जो मन से लिखे जाते हैं
वो कहाँ
तुम तक पहुँच पाते हैं।
*****

Monday, June 22, 2009

भिखारिन


बच्चा भूखा है, कुछ दे दे सेठ! गोद में बच्चे को उठाए एक जवान औरत हाथ फैला कर भीख माँग रही थी।

इस का बाप कौन है? अगर पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो?सेठ झुंझला कर बोला।

औरत चुप रही। सेठ ने उसे सिर से पाँव तक देखा। उसके वस्त्र मैले तथा फटे हुए थे, लेकिन बदन सुंदर व आकर्षक था। वह बोला, मेरे गोदाम में काम करोगी? खाने को भी मिलेगा और पैसे भी।

भिखारिन सेठ को देखती रही, मगर बोली कुछ नहीं।

बोल, बहुत से पैसे मिलेंगे।

सेठ तेरा नाम क्या है?

नाम! मेरे नाम से तुझे क्या लेना-देना?

जब दूसरे बच्चे के लिए भीख माँगूंगी तो लोग उसके बाप का नाम पूछेंगे तो क्या बताऊँगी?

अब सेठ चुप था।

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Wednesday, June 10, 2009

ਮਾਂ



ਚੁਬਾਰੇ ਵਿੱਚੋਂ ਹੀ ਉਸ ਨੇ ਮਾਂ ਨੂੰ ਗਾਲ੍ਹਾਂ ਕੱਢਣੀਆਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀਆਂ ਸਨ। ਬਜ਼ੁਰਗ ਮਾਂ ਨੂੰ ਮਾਰਨ ਵਾਸਤੇ ਲਾਲ ਸੂਹਾ ਹੋਇਆ ਪੁੱਤ ਹੇਠਾਂ ਆ ਰਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਪੌੜੀਆਂ ਵਿਚ ਪੈਰ ਫਿਸਲ ਗਿਆ। ਪੌੜੀਆਂ ਦੇ ਰੇਲਿੰਗ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਲੱਗੀ ਹੋਈ। ਤਿੰਨ ਚਾਰ ਪੌੜੀਆਂ ਰੁੜ੍ਹਨ ਮਗਰੋਂ ਉਹ ਪਾਸਿਓਂ ਥੱਲੇ ਸਿਰ ਭਾਰ ਡਿੱਗ ਪਿਆ।
ਉਸਨੂੰ ਤੁਰੰਤ ਹਸਪਤਾਲ ਲਿਜਾਇਆ ਗਿਆ। ਡਾਕਟਰ ਨੇ ਦੇਖਦਿਆਂ ਹੀ ਉਸਨੂੰ ਮ੍ਰਿਤ ਘੋਸ਼ਿਤ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਘਰ ਵਿਚ ਰੋਣਾ ਪਿੱਟਣਾ ਮਚ ਗਿਆ। ਮਾਂ ਤਾਂ ਬੁਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਹਿਮੀ ਪਈ ਸੀ। ਉਹ ਨਾ ਰੋਈ, ਨਾ ਕੁਝ ਬੋਲੀ।
ਅੰਤਮ ਯਾਤਰਾ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਹੋ ਗਈ। ਪੁੱਤਰ ਦੇ ਅੰਤਮ ਦਰਸ਼ਨਾ ਲਈ ਮਾਂ ਨੂੰ ਲਾਸ਼ ਕੋਲ ਲਿਆਂਦਾ ਗਿਆ। ਪੁੱਤ ਦਾ ਝਰੀਟਿਆ ਚਿਹਰਾ ਦੇਖ ਕੇ ਮਾਂ ਦਾ ਅੰਦਰ ਕੁਰਲਾ ਉੱਠਿਆ। ਉਹ ਕੁਝ ਚਿਰ ਲਾਸ਼ ਦਾ ਚਿਹਰਾ ਪਲੋਸਦੀ ਰਹੀ, ਫਿਰ ਉੱਠ ਕੇ ਅੰਦਰ ਗਈ। ਵਾਪਸ ਆਈ ਤਾਂ ਉਹਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਦਵਾਈ ਦੀ ਸ਼ੀਸ਼ੀ ਸੀ। ਰੂੰ ਦੇ ਫੰਭੇ ਨਾਲ ਉਹ ਪੁੱਤਰ ਦੇ ਚਿਹਰੇ ਉੱਤੇ ਵੱਜੀਆਂ ਸੱਟਾਂ ਉੱਪਰ ਦਵਾਈ ਲਾਉਣ ਲੱਗੀ।
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Friday, May 22, 2009

ਬਜ਼ੁਰਗ ਰਿਕਸ਼ੇਵਾਲਾ




ਗਲੀ ਦੇ ਮੋੜ ਉੱਤੇ ਪਹੁੰਚਿਆ ਤਾਂ ਅੱਜ ਫੇਰ ਉਹੀ ਬਜ਼ੁਰਗ ਰਿਕਸ਼ੇਵਾਲਾ ਖੜਾ ਸੀ। ਤਿੰਨ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਉਹੀ ਖੜਾ ਮਿਲਦਾ ਹੈ, ਸਵੇਰੇ ਸਵੇਰੇ। ਜੀ ਕੀਤਾ ਕਿ ਇਹਦੇ ਰਿਕਸ਼ੇ ਵਿਚ ਬੈਠਣ ਨਾਲੋਂ ਤਾਂ ਪੈਦਲ ਹੀ ਤੁਰ ਪਵਾਂ, ਵੀਹ ਕੁ ਮਿੰਟ ਦਾ ਹੀ ਰਸਤਾ ਹੈ। ਘੜੀ ਵੇਖੀ ਤਾਂ ਏਨਾ ਕੁ ਸਮਾਂ ਹੀ ਬਚਦਾ ਸੀ। ਕਿਤੇ ਬੱਸ ਹੀ ਨਾ ਨਿਕਲ ਜਾਵੇ, ਸੋਚ ਕੇ ਮਨ ਕਰੜਾ ਕੀਤਾ ਤੇ ਰਿਕਸ਼ੇ ਵਿਚ ਬੈਠ ਗਿਆ।
ਪੱਕਾ ਮਨ ਬਣਾ ਲਿਆ ਸੀ ਕਿ ਅੱਜ ਰਿਕਸ਼ੇਵਾਲੇ ਵੱਲ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਵੇਖਣਾ। ਆਸੇ ਪਾਸੇ ਵੇਖਦਾ ਰਹਾਂਗਾ। ਪਿਛਲੇ ਤਿੰਨ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਇਸੇ ਰਿਕਸ਼ੇ ਉੱਤੇ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹਾਂ। ਜਦ ਵੀ ਰਿਕਸ਼ੇਵਾਲੇ ਉੱਤੇ ਨਿਗ੍ਹਾ ਟਿਕ ਜਾਂਦੀ, ਮੈਂ ਉੱਥੇ ਹੀ ਉੱਤਰਨ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ। ਬਾਕੀ ਦਾ ਰਸਤਾ ਪੈਦਲ ਤੈਅ ਕੀਤਾ, ਹਰ ਰੋਜ਼।
ਪੈਡਲਾਂ ਉੱਤੇ ਜ਼ੋਰ ਪੈਣ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਸੁਣਾਈ ਦਿੱਤੀ ਤੇ ਰਿਕਸ਼ਾ ਤੁਰ ਪਿਆ। ਮੈਂ ਇੱਧਰ-ਉੱਧਰ ਵੇਖਣ ਲੱਗਾ। ‘ਗਰੀਨ ਮੋਟਰਜ’ ਦਾ ਬੋਰਡ ਦਿਸਿਆ ਤਾਂ ਯਾਦ ਆਇਆ ਕਿ ਪਹਿਲੇ ਦਿਨ ਤਾਂ ਇੱਥੇ ਹੀ ਉੱਤਰ ਗਿਆ ਸੀ। ਬਹਾਨਾ ਬਣਾਇਆ ਸੀ ਕਿ ਦੋਸਤ ਨੇ ਜਾਣਾ ਹੈ, ਉਸ ਨਾਲ ਚਲਾ ਜਾਵਾਂਗਾ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਮਨ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਸਮਝਾਇਆ ਸੀ, ਪਰ ਫੇਰ ਵੀ ਦੋ ਗਲੀਆਂ ਅੱਗੇ ਤੱਕ ਹੀ ਜਾ ਸਕਿਆ ਸੀ।
‘ਕੜ ਕੜ’ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਨੇ ਮੇਰੀ ਬਿਰਤੀ ਨੂੰ ਭੰਗ ਕੀਤਾ। ਰਿਕਸ਼ੇ ਦੀ ਚੇਨ ਉਤਰ ਗਈ ਸੀ। ਮੇਰੀ ਨਿਗ੍ਹਾ ਰਿਕਸ਼ੇ ਵਾਲੇ ਵੱਲ ਚਲੀ ਗਈ। ਉਹਦੇ ਇਕ ਪੈਰ ਵਿਚ ਪੱਟੀ ਬੰਨ੍ਹੀ ਹੋਈ ਸੀ ਤੇ ਪੈਰ ਵਿਚ ਜੁੱਤੀ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਯਾਦ ਆਇਆ, ਜਦੋਂ ਬਾਪੂ ਦੇ ਪੈਰ ਵਿਚ ਮੇਖ ਵੱਜ ਗਈ ਸੀ ਤਾਂ ਉਹ ਵੀ ਠੰਡ ਵਿਚ ਬਿਨਾਂ ਜੁੱਤੀ ਦੇ ਫਿਰਦਾ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਚੇਨ ਠੀਕ ਕਰ ਬਜ਼ੁਰਗ ਨੇ ਪਜਾਮਾ ਉਤਾਂਹ ਚੜ੍ਹਾਇਆ ਤਾਂ ਨਿਗ੍ਹਾ ਉੱਪਰ ਤੱਕ ਚਲੀ ਗਈ। ਬਾਪੂ ਵੀ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਪਜਾਮਾ ਉਤਾਂਹ ਚੜ੍ਹਾ ਲੈਂਦਾ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਲੱਗਾ ਜਿਵੇਂ ਰਿਕਸ਼ੇਵਾਲਾ ਕੁਝ ਕਹਿ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਮੇਰਾ ਧਿਆਨ ਬਦੋਬਦੀ ਉਹਦੇ ਮੂੰਹ ਵੱਲ ਚਲਾ ਗਿਆ। ਉਹਦੀ ਢਿੱਲੀ ਜਿਹੀ ਪੱਗ ਤੇ ਬੋਲਦੇ ਸਮੇਂ ਸਿਰ ਹਿਲਾਉਣ ਦੇ ਢੰਗ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਅੰਦਰ ਤੀਕ ਹਿਲਾ ਦਿੱਤਾ। ਚਾਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਮੈਂ ਉਸ ਤੋਂ ਨਿਗ੍ਹਾ ਨਹੀਂ ਹਟਾ ਸਕਿਆ। ਅਬੜਵਾਹ ਮੇਰੇ ਮੂੰਹੋਂ ਨਿਕਲ ਗਿਆ, “ਬਾਪੂ, ਰਿਕਸ਼ਾ ਰੋਕ!”
ਰਿਕਸ਼ੇ ਵਾਲਾ ਬੋਲਿਆ, “ਕੀ ਗੱਲ ਹੋਗੀ ਜੀ?”
“ਕੁਝ ਨਹੀਂ, ਇਕ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕੰਮ ਯਾਦ ਆ ਗਿਆ।” ਮੈਂ ਰਿਕਸ਼ੇ ਵਿੱਚੋਂ ਉਤਰ ਕੇ ਉਸਨੂੰ ਪੰਜ ਰੁਪਏ ਦਾ ਨੋਟ ਫੜਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਕਿਹਾ।
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Wednesday, May 20, 2009

तीस वर्ष बाद




“आज फिर सुखविंदर की माँ का फोन आया था।”
पत्नी ने बताया तो नरेश व्याकुल हो उठा, “तीसरे दिन ही फोन आ जाता है किसी न किसी का। दिमाग खराब कर रखा है।”
सुखविंदर इंजनियरिंग कालेज में उनकी बेटी बबली का सहपाठी रहा था। दोनों एक-दूसरे को चाहते थे। न लड़का कहीं और शादी करने को तैयार था न लड़की। लड़का ठीक था, बहुत पढ़ा-लिखा और सुंदर भी। परंतु था जात-बिरादरी से बाहर का। इसलिए समाज में होने वाली बदनामी से नरेश बहुत डर रहा था। उसका विचार था कि थक-हार कर जब लड़का कहीं और शादी कर लेगा तो बबली स्वयं उनकी बात मान लेगी।
थोड़ा सहज हुआ तो उसने पूछा, “क्या कहती थी वह?”
“कुछ नहीं, बधाई दे रही थी। सुखविंदर की सरकारी नौकरी लग गई। वह एक बार आपसे मिलना चाहती है।”
“ ना हमें किस बात की बधाई? क्या लगता है वह हमारा? लगता है आज उसकी मिलने की इच्छा पूरी करनी ही पड़ेगी। आज देकर आता हूँ उसे अच्छी तरह बधाई।” नरेश क्रोध में उबल रहा था।
तीस किलोमीटर के लगभग का फासला था। एक घंटे पश्चात नरेश सुखविंदर की कोठी पर था। ड्राइंगरूम की शीतलता ने उसके क्रोध की ज्वाला को थोड़ा शांत किया। एक लड़की ठंडे पानी का गिलास रख गई। थोड़ी देर बाद ही लगभग पचास वर्ष की एक औरत ने आकर हाथ जोड़ ‘नमस्कार’ कहा और वह उसके सामने बैठ गई।
वह सोच ही रहा था कि बात कहाँ से शुरु करे, तभी सुखविंदर की माँ की शहद-सी मीठी आवाज उसके कानों में पड़ी, “बहुत गुस्से में लगते हो, नरेश जी।”
आवाज उसे जानी-पहचानी सी लगी। उसके बोलने से पहले ही वह फिर बोल पड़ी, “एक बात पूछ सकती हूँ?”
नरेश जैसे वशीभूत हो गया, “ज़रूर पूछिए।”
“आपको सुखविंदर में कोई कमी दिखाई देती है?”
“कमी…कमी तो कोई नहीं, मगर जब जात-बिरादरी ही एक नहीं…”
“बस…केवल जात-बिरादरी…?”
“आपको यह मामूली बात लगती है?”
वह कुछ देर उसे देखती रही और फिर बोली, “मुझे पहचाना?”
नरेश ने याददाश्त के घोड़े बहुत दौड़ाए, लेकिन असफल रहा। सुखविंदर की माँ को जैसे सदमा पहुँचा, “…अपनी दीपी को भी नहीं पहचाना!”
नरेश तो जैसे आसमान से नीचे गिर कर ज़मीन में धँस गया। उसकी कालेज की संगिनी दीपेंद्र, उसकी ज़िंदगी का पहला और आखिरी प्यार, दीपी। वह दीपी को अवाक् देखता रह गया।
“तीस वर्ष पहले हमारे माँ-बाप ने जात-बिरादरी के नाम पर जो फैसला किया था, क्या वह सही था?”
नरेश की नज़रें झुक गईं। बड़ी कठिनाई से उसके मुख से निकल पाया, “…समाज में बदनामी…”
“सुखविंदर और बबली तीस वर्ष पहले के नरेश और दीपी नहीं है। वे तो बंधन में बंध चुके हैं, आप उन्हें अलग नहीं कर सकते। अब तो निर्णय यह करना है कि आपने इस घर से रिश्ता जोड़ना है या नहीं।”
नरेश पूरी तरह खामोश था। उसे कुछ नहीं सूझ रहा था। उसकी ओर चाय का कप बढ़ाते हुए दीपेंद्र ने कहा, “आपने गुस्से में पानी नहीं पिया। गुस्सा दूर हो गया हो तो चाय की घूंट…।”
नरेश ने कप पकड़ते हुए कहा, “आपको बधाई देना तो भूल ही गया।”
“किस बात की जनाब?”
“बेटे सुखविंदर को सरकारी नौकरी मिलने की।”
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Sunday, May 17, 2009

एक उज्जवल लड़की




रंजना, उसकी प्रेयसी, उसकी मंगेतर दो दिन बाद आई थी। आते ही वह कुर्सी पर सिर झुका कर बैठ गई। इस तरह चुप-चाप बैठना उसके स्वभाव के विपरीत था।
“क्या बात है मेरी सरकार! कोई नाराजगी है?” कहते हुए गौतम ने थोड़ा झुक कर उसका चेहरा देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा बुझा हुआ और सूजी आँखों वाला चेहरा तो रंजना के सुंदर बदन पर पहले कभी नहीं देखा था। लगता था जैसे वह बहुत रोती रही हो।
“ये क्या सूरत बनाई है? कुछ तो बोलो?” उसने रंजना की ठोड़ी को छुआ तो वह सिसक पड़ी।
“मैं अब तुम्हारे काबिल नहीं रही!” वह रोती हुई बोली।
गौतम एक बार तो सहम गया। उसे कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा सहज होने पर उसने पूछा, “क्या बात है रंजना? क्या हो गया?”
“मैं लुट गई…एक दरिंदे रिश्तेदार ने ही लूट लिया…।” रंजना फूट-फूट कर रो पड़ी, “अब मैं पवित्र नहीं रही।”
एक क्षण के लिए गौतम स्तब्ध रह गया। क्या कहे? क्या करे? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। रंजना का सिर सहलाता हुआ, वह उसके आँसू पोंछता रहा। रोना कम हुआ तो उसने पूछा, “क्या उस वहशी दरिंदे ने तुम्हारा मन भी लूट लिया?”
“मैं तो थूकती भी नहीं उस कुत्ते पर…!” सुबकती हुई रंजना क्रोध में उछल पड़ी। थोड़ी शांत हुई तो बोली, “मेरा मन तो तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकता।”
गौतम रंजना की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। उसने रंजना के चेहरे को अपने हाथों में ले लिया। झुक कर रंजना के बालों को चूमते हुए वह बोला, “पवित्रता का संबंध तन से नहीं, मन से है रंजना। जब मेरी जान का मन इतना पवित्र है तो उसका सब कुछ पवित्र है।”
रंजना ने चेहरा ऊपर उठा कर गौतम की आँखों में देखा। वह कितनी ही देर तक उसकी प्यार भरी आँखों में झाँकती रही। फिर वह कुर्सी से उठी और उसकी बाँहों में समा गई।
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Saturday, May 16, 2009

वापसी-1



पत्नी के त्रिया हठ के आगे मेरी एक न चली। अपने खोये हुए सोने के झुमके के बारे पूछने के लिए, उसने मुझे ‘डेरे वाले बाबा’ के पास जाने को बाध्य कर दिया।
पत्नी का झुमका पिछले सप्ताह छोटे भाई की शादी के अवसर पर घर में ही कहीं खो गया था। बहुत तलाश करने पर भी वह नहीं मिला।
बाबा के डेरे जाते समय रास्ते में मेरी पत्नी बाबा जी की दिव्य-दृष्टि का बखान ही करती रही, “पड़ोस वाली पाशो का कंगन अपने मायके में खो गया था। बाबा जी ने झट बता दिया कि कंगन पाशो की भाभी के संदूक में पड़ा दीख रहा है। पाशो ने मायके जाकर भाभी का संदूक देखा तो कंगन वहीं से मिला। जानते हो पाशो का मायका बाबा जी के डेरे से दस मील दूर है।”
मैं कहना तो चाहता था कि ऐसी बातें बहुत बढ़ा-चढा कर की गईं होती हैं। परंतु मेरे कहने का पत्नी पर कोई प्रभाव नहीं पढने वाला था, इसलिए मैं चुप ही रहा।
पत्नी फिर बोली, “…और अपने गब्दू की लड़की रेशमा। ससुराल जाते समय रास्ते में उसकी सोने की अंगूठी खो गई। बाबा जी ने आँखें मूँद कर देखा और बोल दिया– ‘नहर के दूसरी ओर नीम के वृक्ष के नीचे घास में पड़ी है अंगूठी।’ और अंगूठी वहीं से मिली।”
गाँव के बाहर निकलने के पश्चात बाबा के डेरे पहुँचते अधिक देर नहीं लगी। बाबा अपने कमरे में ही थे। हमने कमरे में प्रवेश किया तो सब सामान उलट-पुलट हुआ पाया। बाबा और उनका एक शागिर्द कुछ ढूँढने में व्यस्त थे।
हमें देख कर बाबा के शागिर्द ने कहा, “बाबा जी थोड़ा परेशान हैं, आप लोग शाम को आना।”
मैने पूछ लिया, “क्या बात हो गई?”
“बाबा जी की सोने की चेन वाली घड़ी नहीं मिल रही। सुबह से उसे ही ढूँढ रहे हैं।” शागिर्द ने सहज भाव से उत्तर दिया।
वापसी बहुत सुखद रही। पत्नी सारे राह एक शब्द भी नहीं बोली।
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संतू



प्रोढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बालटी उठा जब सीढ़ियां चढ़ने लगा तो मैने उसे सचेत किया, “ध्यान से चढ़ना! सीढ़ियों में कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।”
“चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियां चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।”
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बालटियां पानी ढ़ोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला। दो रुपए का एक नोट और चाय का एक कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, “तू रोज आकर पानी भर दिया कर।”
चाय की चुस्कियां लेते हुए संतू ने खुश होकर कहा, “रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के! कहते हैं, अभी महीना भर पानी नहीं आता नहर में। मौज हो गई अपनी तो।”
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियां चढ़ जब संतू ने पानी के लिए बालटी मांगी तो पत्नी ने कहा, “अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर नल में पानी आ गया था।”
“नहर में पानी आ गया !” संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों की ओर कदम घसीटने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों से गिरने की आवाज सुनाई दी। मैने भागकर देखा, संतू आंगन में औंधे मुंह पड़ा था।
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ਚਮਤਕਾਰ



ਬੱਚੇ ਦੀ ਬੀਮਾਰੀ ਕਾਰਨ ਗਰੀਬੂ ਦੋ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਦਿਹਾੜੀ ਕਰਨ ਨਹੀਂ ਸੀ ਜਾ ਸਕਿਆ। ਅੱਜ ਬੱਚਾ ਕੁੱਝ ਠੀਕ ਹੋਇਆ ਤਾਂ ਘਰ ਵਿਚ ਰਾਸ਼ਨ ਪਾਣੀ ਮੁਕ ਗਿਆ ਸੀ। ਬੱਚੇ ਨੂੰ ਪਿਆਉਣ ਲਈ ਘਰ ਵਿਚ ਇਕ ਤੁਪਕਾ ਦੁੱਧ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ।
“ ਜਾਓ, ਹੱਟੀ ਆਲੇ ਨੂੰ ਆਖੋ ਜੁਆਕ ਬਮਾਰ ਐ, ਪਾਈਆ ਦੁੱਧ ਹੁਦਾਰ ਦੇ ਦਵੇ। ਭਲਕ ਨੂੰ ਦੇਦਾਂਗੇ ਉਹਦੇ ਸਾਰੇ ਪੈਸੇ।” ਪਤਨੀ ਨੇ ਕਿਹਾ ਤਾਂ ਗਰੀਬੂ ਗੜਵੀ ਲੈ ਕੇ ਤੁਰ ਪਿਆ।
ਉਹਨੇ ਦੁਕਾਨਦਾਰ ਕੋਲ ਬੱਚੇ ਦੀ ਬਿਮਾਰੀ ਦਾ ਵਾਸਤਾ ਦੇ ਦੁੱਧ ਲਈ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ ਤਾਂ ਉਹ ਬੋਲਿਆ, “ ਉਧਾਰ-ਨਗਦ ਤਾਂ ਬਾਦ ਦੀ ਗੱਲ ਐ, ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਤਾਂ ਚਾਹ ਪੀਣ ਜੋਗਾ ਦੁੱਧ ਵੀ ਹੈ ਨੀ। ਸਾਰਾ ਦੁੱਧ ਲੋਕ ਲੈਗੇ, ਭਗਵਾਨ ਦੀ ਮੂਰਤੀ ਨੂੰ ਪਿਆਉਣ ਲਈ। ਅੱਜ ਤਾਂ ਚਮਤਕਾਰ ਹੋ ਗਿਆ, ਮੂਰਤੀ ਦੁੱਧ ਪੀ ਰਹੀ ਐ।”
“ ਪੱਥਰ ਦੀ ਮੂਰਤੀ ਦੁੱਧ ਪੀ ਰਹੀ ਐ ?” ਗਰੀਬੂ ਹੈਰਾਨ ਸੀ। ਉਹਨੇ ਸੋਚਿਆ− ‘ ਭਗਵਾਨ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਦੁੱਧ ਪੀਊ ? ਐਡਾ ਕਿੱਡਾ ਕੁ ਢਿੱਡ ਐ ? ਮੰਦਰ ਚਲਦੈਂ, ਸ਼ੈਂਤ ਉੱਥੇ ਈ ਮੈਨੂੰ ਮੁੰਡੇ ਜੋਗਾ ਦੁੱਧ ਮਿਲ ਜੇ।’
ਤੇ ਉਹ ਮੰਦਰ ਵੱਲ ਨੂੰ ਹੋ ਲਿਆ।
ਮੰਦਰ ਵਿਚ ਭੀੜ ਲੱਗੀ ਸੀ। ਲੋਕ ਕੋਲੀਆਂ, ਗਲਾਸਾਂ ਤੇ ਗੜਵੀਆਂ ਵਿਚ ਦੁੱਧ ਲਈ ਕਤਾਰ ਵਿਚ ਖੜੇ ਆਪਣੀ ਵਾਰੀ ਦੀ ਉਡੀਕ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ। ਇਕ ਮੋਟੇ ਲਾਲੇ ਕੋਲ ਵੱਡੀ ਸਾਰੀ ਗੜਵੀ ਵੇਖ ਗਰੀਬੂ ਨੇ ਉਸ ਕੋਲ ਜਾ ਬੇਨਤੀ ਕੀਤੀ, “ ਜੁਆਕ ਬਮਾਰ ਐ, ਭੋਰਾ ਦੁੱਧ ਦੇ ਦਿਉਂਗੇ ਤਾਂ ਥੋਡਾ ਭਲਾ ਹੋਊ।… ਮੂਰਤੀ ਨੂੰ ਭੋਰਾ ਘੱਟ ਪਿਆ ਦਿਓ…।”
ਲਾਲੇ ਨੇ ਉਹਨੂੰ ਘੂਰ ਕੇ ਵੇਖਿਆ ਤੇ ਕਿਹਾ, “ ਮੈਂ ਭਗਵਾਨ ਨਮਿੱਤ ਲਿਆਂਦੈ ਸਾਰਾ ਦੁੱਧ। ਤੈਨੂੰ ਦੇਕੇ ਪਾਪ ਦਾ ਭਾਗੀ ਨਹੀਂ ਬਣਨਾ।”
ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਗਰੀਬ ਉੱਤੇ ਤਰਸ ਨਹੀਂ ਆਇਆ । ਅੰਤ ਉਹ ਕਿਤੇ ਹੋਰ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਲਈ ਮੰਦਰ ਵਿੱਚੋਂ ਬਾਹਰ ਆ ਗਿਆ। ਮੰਦਰ ਦੇ ਪਿਛਵਾੜੇ ਵਾਲੀ ਭੀੜੀ ਜਿਹੀ ਸੁੰਨੀ ਗਲੀ ਵਿੱਚੋਂ ਲੰਘਦਿਆਂ ਉਹਨੇ ਇਕ ਹੋਰ ਚਮਤਕਾਰ ਵੇਖਿਆ− ਮੰਦਰ ਪਿਛਲੀ ਨਾਲੀ ਜੋ ਸਦਾ ਗੰਦੇ ਪਾਣੀ ਨਾਲ ਭਰੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ, ਅੱਜ ਦੁੱਧ ਨਾਲ ਸਫ਼ੈਦ ਹੋਈ ਪਈ ਸੀ।
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ਕੁੰਡਲੀ



ਵੱਡੇ ਭਰਾ ਲਈ ਜਦੋਂ ਵੀ ਕੋਈ ਯੋਗ ਰਿਸ਼ਤਾ ਆਉਂਦਾ, ਕੁੜੀ ਦੀ ਜਨਮ-ਕੁੰਡਲੀ ਲੈ, ਮਾਂ ਪੰਡਤ ਰਾਮਕ੍ਰਿਸ਼ਣ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਕੋਲ ਜਾਂਦੀ। ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਕੁੜੀ ਦੀ ਕੁੰਡਲੀ ਨਾਲ ਭਰਾ ਦੀ ਕੁੰਡਲੀ ਮਿਲਾਉਂਦੇ ਤੇ ‘ਨਾਂਹ’ ਵਿਚ ਸਿਰ ਹਿਲਾ ਦਿੰਦੇ। ਕਦੇ ਅੱਠ ਗੁਣ ਮਿਲਦੇ ਤੇ ਕਦੇ ਦਸ। ਮਾਂ ਪੱਚੀ ਕੁ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਮਿਲੇ ਬਿਨਾ ਆਪਣੇ ਸਪੁੱਤਰ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤੇ ਲਈ ਤਿਆਰ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਪੰਦਰਾਂ ਕੁ ਯੋਗ ਕੁੜੀਆਂ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤੇ ਮਾਂ ਦੀ ਇਸ ਪਰਖ ਕਸੌਟੀ ਦੀ ਬਲੀ ਚੜ੍ਹ ਚੁੱਕੇ ਸਨ।
ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਇਲਾਕੇ ਦੇ ਮੰਨੇ-ਪ੍ਰਮੰਨੇ ਜੋਤਸ਼ੀ ਸਨ । ਉਹਨਾਂ ਕੋਲ ਸਦਾ ਭੀੜ ਲੱਗੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਮਿਲਣ ਲਈ ਸਮਾਂ ਲੈਣਾ ਪੈਂਦਾ ਸੀ। ਮਾਂ ਕਹਿੰਦੀ, ‘ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਕੋਈ ਵਿਦਵਾਨ ਜੋਤਸ਼ੀ ਨਹੀਂ। ਭਵਿੱਖ ਬਾਰੇ ਕਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਇਕ ਇਕ ਗੱਲ ਸਹੀ ਸਾਬਤ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਤਕ ਉਹ ‘ਹਾਂ’ ਨਹੀਂ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਪੁੱਤਰ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਨਹੀਂ ਕਰਾਂਗੀ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਪੁੱਤਰ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾਅ ’ਤੇ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦੀ।’
ਤਿੰਨ-ਚਾਰ ਦਿਨ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਇਕ ਹੋਰ ਰਿਸ਼ਤਾ ਆਇਆ ਸੀ। ਉਸ ਕੁੜੀ ਦੀ ਕੁੰਡਲੀ ਮਿਲਾਉਣ ਲਈ ਮਾਂ ਨੇ ਅੱਜ ਫਿਰ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਕੋਲ ਜਾਣਾ ਸੀ। ਕੁੜੀ ਭਰਾ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਹੀ ਪੜ੍ਹੀ-ਲਿਖੀ ਸੀ। ਸਿਹਤ ਪੱਖੋਂ ਠੀਕ ਸੀ ਤੇ ਸਾਡੀ ਜਾਣੀ-ਪਛਾਣੀ ਵੀ ਸੀ। ਉਹ ਇਕ ਨਾਮੀ ਕੰਪਨੀ ਵਿਚ ਪੰਜਾਹ ਕੁ ਹਜ਼ਾਰ ਰੁਪਏ ਮਹੀਨਾ ਤਨਖਾਹ ਲੈ ਰਹੀ ਸੀ।
ਮੈਂ ਪਹਿਲਾਂ ਵਾਂਗ ਮਾਂ ਨੂੰ ਅੱਜ ਫਿਰ ਕਿਹਾ, “ ਮਾਂ, ਤੂੰ ਪੰਡਤਾਂ ਦੇ ਚੱਕਰਾਂ ਵਿਚ ਪੈ ਕੇ ਇਹ ਚੰਗਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਹੱਥੋਂ ਨਾ ਗੁਆ।”
ਪਰ ਮਾਂ ਉੱਤੇ ਮੇਰੀ ਗੱਲ ਦਾ ਕੋਈ ਅਸਰ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਉਹ ਬੋਲੀ, “ ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਜਨਮ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਤੂੰ ਮੈਨੂੰ ਪਾਠ ਨਾ ਪੜ੍ਹਾ। ਛੇਤੀ ਚੱਲ, ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਨੇ ਸੁਬ੍ਹਾ ਨੌਂ ਵਜੇ ਦਾ ਸਮਾਂ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ।”
ਮਨ ਮਾਰ ਕੇ ਮੈਂ ਸਕੂਟਰ ਬਾਹਰ ਕੱਢਿਆ। ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਦੂਜੇ ਸਿਰੇ ’ਤੇ ਸਥਿਤ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਦੇ ਘਰ ਪਹੁੰਚੇ ਤਾਂ ਉੱਥੇ ਕੁਹਰਾਮ ਮੱਚਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਪੁੱਛਣ ਤੇ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਕਿ ਛੇ ਕੁ ਮਹੀਨੇ ਪਹਿਲਾਂ ਵਿਆਹੀ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਦੀ ਧੀ ਦਾ ਪਤੀ ਸਵੇਰੇ ਇਕ ਦੁਰਘਟਨਾ ਵਿਚ ਮਰ ਗਿਆ ਸੀ।
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Thursday, May 14, 2009

अनमोल ख़ज़ाना





अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुंदर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, “इसमें मेरा अनमोल ख़ज़ाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी।”
एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बंद करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैने डिबिया बाहर निकाली। मैने उसे हिला कर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्त्व के सोने अथवा चाँदी के कुछ सिक्के संभाल कर रखे हुए हैं।
मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को। जब सास मृत्युशय्या पर थी और हम उससे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं–‘ले बेटी ! तेरी माँ के पास तो बस यही है देने को।’
मैने थैली खोल कर पलटी तो पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे– तीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिला कर दस रुपये।
मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।
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यादगार




विरसा सिंह बस से उतर, गाँव वाली सड़क पर पहुँच कर रुक गया। विलायत से आने के पश्चात, वह अपने मामा के लड़के से मिल कर आ रहा था। उस गाँव के बाहर बने बहुत बड़े एवं सुंदर गेट को देख कर उसने सोचा कि वह भी अपनी माँ की स्मृति में अपने गाँव के बाहर एक वैसा ही सुंदर गेट बनवायेगा।
विलायत में विरसा सिंह ने कड़े परिश्रम से बहुत सारा धन कमाया था। इस कमाई में से वह अपने गाँव में एक स्मारक बनवाना चाहता था। सलाह-मशविरा तो वह कई दिनों से दोस्त-मित्रों के साथ कर रहा था। किसी ने धर्मशाला बनवाने की सलाह दी तो किसी ने डिस्पैंसरी की। किसी ने श्मशान-भूमि में कमरा व शैड बनवाने को भी कहा। बरसात में मुर्दा फूंकने में बड़ी परेशानी होती थी। लेकिन विरसा सिंह कोई निर्णय नहीं ले सका था।
वह सड़क के बीचों-बीच खड़ा गेट की कल्पना करने लगा। जब लोग यहाँ से गुजरेंगे तो उसकी माँ का नाम पढ़कर उसे याद किया करेंगे। कुछ देर तक खड़ा, वह गेट की लंबाई, चौड़ाई व ऊँचाई का अनुमान लगाता रहा।
आकाश में बादल उमड़ आए थे और मौसम खराब होता जा रहा था। बारिश आ जाने के डर से वह चल पड़ा। वह मुश्किल से गाँव के बाहर बने स्कूल तक ही पहुँच पाया था कि बारिश आ गई। खुले मैदान में बैठे विद्यार्थियों को तेजी से वृक्षों की ओर भागते देख, वह भी उधर को ही हो लिया। विद्यार्थियों के लिए वृक्षों की छत काफी नहीं थी। वे स्वयं भी भीग रहे थे और उनकी कापी-किताबें भी। विरसा सिंह थोड़ा-थोड़ा भीगता हुआ अध्यापक से स्कूल के बारे में बातें करता रहा।
बारिश कुछ थमी तो वह विद्यार्थियों के साथ ही गाँव की ओर चल पड़ा। बच्चों के साथ जाते हुए उसे अपना बचपन याद आ रहा था। वर्षा वाले दिन उसकी माँ उसे स्कूल ही नहीं भेजती थी। बारिश में भीगने से उसे बुखार जो हो जाता था।
विरसा सिंह सीधा सरपंच के पास गया और माँ की स्मृति में स्कूल में कुछ कमरे बनवाने का निर्णय सुना दिया।
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ਸਾਂਝਾ ਦਰਦ


ਬਿਰਧ ਆਸ਼ਰਮ ਵਿਚ ਗਏ ਪੱਤਰਕਾਰ ਨੇ ਉੱਥੇ ਬਰਾਂਡੇ ਵਿਚ ਬੈਠੀ ਇਕ ਬਜ਼ੁਰਗ ਔਰਤ ਨੂੰ ਪੁੱਛਿਆ, “ ਮਾਂ ਜੀ, ਤੁਹਾਡੇ ਕਿੰਨੇ ਪੁੱਤਰ ਹਨ?”
ਉਹ ਬੋਲੀ, “ ਨਾ ਪੁੱਤ, ਨਾ ਧੀ। ਮੇਰੇ ਤਾਂ ਕੋਈ ਔਲਾਦ ਨਹੀਂ।”
ਪੱਤਰਕਾਰ ਬੋਲਿਆ, “ ਤੁਹਾਨੂੰ ਗਮ ਤਾਂ ਹੋਵੇਗਾ ਪੁੱਤਰ ਨਾ ਹੋਣ ਦਾ। ਪੁੱਤਰ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਅੱਜ ਤੁਸੀਂ ਇਸ ਬਿਰਧ ਆਸ਼ਰਮ ’ਚ ਨਾ ਹੋ ਕੇ ਆਪਣੇ ਘਰ ਹੁੰਦੇ।”
ਬਜ਼ੁਰਗ ਔਰਤ ਨੇ ਥੋੜੀ ਦੂਰ ਬੈਠੀ ਇਕ ਦੂਜੀ ਔਰਤ ਵੱਲ ਇਸ਼ਾਰਾ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਕਿਹਾ, “ ਉਹ ਬੈਠੀ ਮੇਰੇ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਦੁਖੀ, ਉਹਦੇ ਤਿੰਨ ਪੁੱਤ ਨੇ। ਉਹਨੂੰ ਪੁੱਛ ਲੈ ।”
ਪੱਤਰਕਾਰ ਉਸ ਬੁੱਢੀ ਵੱਲ ਜਾਣ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਨੇੜੇ ਹੀ ਬੈਠਾ ਇਕ ਬਜ਼ੁਰਗ ਬੋਲ ਪਿਆ, “ ਪੁੱਤਰ, ਇਸ ਆਸ਼ਰਮ ’ਚ ਅਸੀਂ ਜਿੰਨੇ ਵੀ ਲੋਕ ਆਂ, ਉਨ੍ਹਾਂ ’ਚੋਂ ਇਸ ਭੈਣ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਬਾਕੀ ਸਾਰਿਆਂ ਦੇ ਦੋ ਤੋਂ ਪੰਜ ਤਕ ਪੁੱਤਰ ਹਨ। ਪਰ ਸਾਡੇ ਸਾਰਿਆਂ ’ਚ ਇਕ ਗੱਲ ਸਾਂਝੀ ਐ…”
“ ਉਹ ਕੀ ?” ਪੱਤਰਕਾਰ ਨੇ ਉਤਸੁਕਤਾ ਨਾਲ ਪੁੱਛਿਆ।
“ ਸਾਡੇ ਸਾਰਿਆਂ ’ਚੋਂ ਕਿਸੇ ਦੇ ਵੀ ਧੀ ਨਹੀਂ ਹੈ।” ਬਜ਼ੁਰਗ ਦਰਦ ਭਰੀ ਅਵਾਜ਼ ਵਿਚ ਬੋਲਿਆ, “ ਜੇ ਧੀ ਹੁੰਦੀ ਤਾਂ ਸ਼ਾਇਦ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਇਸ ਆਸ਼ਰਮ ’ਚ ਨਾ ਹੁੰਦੇ।”
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ਸੰਤੂ



ਅਧਖੜ ਉਮਰ ਦਾ ਸਿਧਰਾ ਜਿਹਾ ਸੰਤੂ ਬੇਮੇਚ ਬੂਟ ਪਾਈ ਪਾਣੀ ਦੀ ਬਾਲਟੀ ਚੁੱਕ ਜਦੋਂ ਪੌੜੀਆਂ ਚੜ੍ਹਨ ਲੱਗਾ ਤਾਂ ਮੈਂ ਉਹਨੂੰ ਸੁਚੇਤ ਕੀਤਾ, “ ਧਿਆਨ ਨਾਲ ਚੜ੍ਹੀਂ । ਪੌੜੀਆਂ ’ਚ ਕਈ ਥਾਵਾਂ ਤੋਂ ਇੱਟਾਂ ਨਿਕਲੀਆਂ ਹੋਈਐਂ । ਡਿੱਗ ਨਾ ਪਈਂ ।”
“ ਚਿੰਤਾ ਨਾ ਕਰੋ ਜੀ, ਮੈਂ ਤਾਂ ਪੰਜਾਹ ਕਿਲੋ ਆਟਾ ਚੁੱਕ ਕੇ ਪੌੜੀਆਂ ਚੜ੍ਹਦਾ ਨਹੀਂ ਡਿੱਗਦਾ ।”
ਤੇ ਸਚਮੁਚ ਵੱਡੀਆਂ-ਵੱਡੀਆਂ ਦਸ ਬਾਲਟੀਆਂ ਪਾਣੀ ਦੀਆਂ ਢੌਂਦੇ ਸੰਤੂ ਦਾ ਪੈਰ ਇਕ ਵਾਰ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਫਿਸਲਿਆ ।
ਦੋ ਰੁਪਏ ਦਾ ਇੱਕ ਨੋਟ ਅਤੇ ਚਾਹ ਦਾ ਕੱਪ ਦਿੰਦਿਆਂ ਪਤਨੀ ਨੇ ਕਿਹਾ, “ ਸੰਤੂ, ਤੂੰ ਰੋਜ਼ ਆ ਕੇ ਪਾਣੀ ਭਰ ਜਿਆ ਕਰ ।”
ਚਾਹ ਦੀਆਂ ਚੁਸਕੀਆਂ ਲੈਂਦੇ ਸੰਤੂ ਨੇ ਖੁਸ਼ ਹੁੰਦਿਆਂ ਕਿਹਾ, “ ਰੋਜ਼ ਵੀਹ ਰੁਪਏ ਬਣ ਜਾਂਦੇ ਐ ਪਾਣੀ ਦੇ । ਕਹਿੰਦੇ ਐ ਅਜੇ ਮਹੀਨਾ ਪਾਣੀ ਨਹੀਂ ਔਂਦਾ । ਮੌਜਾਂ ਲੱਗ ਗਈਆਂ ।”
ਉਸੇ ਦਿਨ ਨਹਿਰ ਵਿਚ ਪਾਣੀ ਆ ਗਿਆ ਤੇ ਟੂਟੀ ਵਿਚ ਵੀ ।
ਅਗਲੀ ਸਵੇਰ ਪੌੜੀਆਂ ਚੜ੍ਹ ਜਦੋਂ ਸੰਤੂ ਨੇ ਪਾਣੀ ਲਈ ਬਾਲਟੀ ਮੰਗੀ ਤਾਂ ਪਤਨੀ ਨੇ ਕਿਹਾ, “ ਹੁਣ ਤਾਂ ਲੋੜ ਨਹੀਂ, ਰਾਤ ਉੱਪਰ ਈ ਟੂਟੀ ਵਿਚ ਪਾਣੀ ਆ ਗਿਆ ਸੀ ।”
“ ਨਹਿਰ ’ਚ ਪਾਣੀ ਆ ਗਿਆ !” ਸੰਤੂ ਨੇ ਹਉਕਾ ਲਿਆ ਤੇ ਵਾਪਸੀ ਲਈ ਪੌੜੀਆਂ ਵੱਲ ਕਦਮ ਘੜੀਸਣ ਲੱਗਾ । ਕੁਝ ਛਿਣ ਬਾਦ ਹੀ ਕਿਸੇ ਦੇ ਪੌੜੀਆਂ ਵਿੱਚੋਂ ਡਿੱਗਣ ਦੀ ਆਵਾਜ਼ ਆਈ । ਮੈਂ ਭੱਜ ਕੇ ਵੇਖਿਆ, ਸੰਤੂ ਵਿਹੜੇ ਵਿਚ ਮੂਧੇ ਮੂੰਹ ਪਿਆ ਸੀ ।
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Wednesday, May 13, 2009

कोठी नंबर छप्पन


गाँव से आई भागवंती पूछ-ताछ कर जब तक आनंद नगर पहुँची, सूर्य अग्नि-पिंड बन कर उसके सिर पर लटक रहा था। उसके भानजे ने शहर के इसी मुहल्ले में पिछले दिनों नई कोठी बनाई थी। उसी से मिलने आई थी भागवंती।
गरमी बढ़ गई थी और गलियाँ सूनी पड़ी थीं। भागवंती साठ वर्ष की हो चुकी थी। वह घुटनों को सहारा देती धीरे-धीरे चल रही थी। वह गाँव के स्कूल में पढ़ने जाती रही थी, इसलिए थोड़ा बहुत पढ़ लेती थी। उसने कई कोठियों के नंबर पढ़े, परंतु भानजे की छप्पन नंबर कोठी उसे नज़र नहीं आई।
स्कूल से आ रही सुन्दर वर्दी पहने दो लड़कियाँ दिखाई दीं तो भागवंती को थोड़ी आस बंधी। उसने उन्हें रोक कर पूछा, “बेटे, छप्पन नंबर कोठी किधर है?”
लड़कियों ने एक-दूसरी की ओर हैरानी से देखा और फिर, “मालूम नहीं।” कह कर अपने राह चली गईं।
भागवंती थोड़ा आगे बढ़ी तो लगभग बारह वर्ष का एक लड़का साइकिल पर आता दिखाई दिया। उसने लड़के से भी छप्पन नंबर कोठी बारे पूछा। लड़का भी लड़कियों की तरह हैरान हो कर उसकी ओर देखने लगा तो वह बोली, “बादली वाले बिरजू की कोठी है। अभी बनाई है, पाँच-छ: महीने हुए।”
“मुझे नहीं पता।” कह कर लड़का साइकिल पर सवार हो गया।
कई घरों के दरवाजों पर दस्तक देने के पश्चात अंतत: भागवंती छप्पन नंबर कोठी तक पहुँच ही गई। कोठी का गेट खुला तो वह हैरान रह गई, सामने वही साइकिल वाला लड़का खड़ा था।
“आपका पोता है मौसी जी।” जब भानजे की पत्नी ने लड़के के बारे में बताया तो वह बोली, “अरी बहू, यह कैसा बेटा है तेरा! इसे तो अपने घर का नंबर भी नहीं पता।”
बहू ने लड़के की ओर सवालिया नज़रों से देखा तो वब बोला, “छप्पन नंबर-छप्पन नंबर करे जा रही थी। अपनी कोठी का नंबर कोई छप्पन है?…अपना नंबर तो फिफ्टी-सिक्स है।”
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मां का कमरा


छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘मां, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बसंती गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है मां, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा मां को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “मां, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!”
“हां मां, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आंखों में आंसू आ गए।
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ਭਾਈਵਾਲ


ਘਰ ਦੀ ਮਾਲਕਣ ਦਾ ਕਤਲ ਕਰ, ਸਾਰੀ ਨਕਦੀ ਤੇ ਜ਼ੇਵਰ ਥੈਲੇ ਵਿਚ ਸਮੇਟ ਸਾਧਾ ਜਦੋਂ ਮਕਾਨ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਿਆ ਤਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਨਿਗ੍ਹਾ ਵਿਚ ਆ ਗਿਆ। ‘ਚੋਰ-ਚੋਰ’ ਦਾ ਸ਼ੋਰ ਮਚ ਗਿਆ। ਘਬਰਾਹਟ ਵਿਚ ਸਾਧੇ ਤੋਂ ਸਕੂਟਰ ਵੀ ਸਟਾਰਟ ਨਾ ਹੋਇਆ। ਲੋਕਾਂ ਤੋਂ ਬਚਣ ਲਈ ਉਹ ਪੈਦਲ ਹੀ ਭੱਜ ਲਿਆ।
ਪੂਰਾ ਵਾਹ ਲਾ ਕੇ ਭੱਜਦਿਆਂ ਵੀ ਸਾਧੇ ਨੂੰ ਲੱਗ ਰਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਛੇਤੀ ਹੀ ਲੋਕ ਉਹਨੂੰ ਧੋਣੋਂ ਨੱਪ ਲੈਣਗੇ। ਆਪਣੇ ਬਚਾ ਲਈ ਉਹ ਪੁਲਿਸ ਥਾਣੇ ਵਿਚ ਵੜ ਗਿਆ।
ਸਾਧੇ ਪਿੱਛੇ ਲੱਗੀ ਭੀੜ ਨੂੰ ਵੇਖ ਥਾਣੇਦਾਰ ਨੂੰ ਲੱਗਾ ਕਿ ਉਹ ਉਸਨੂੰ ਬਚਾ ਨਹੀਂ ਸਕੇਗਾ। ਉਹਨੇ ਸਾਧੇ ਨੂੰ ਦੂਜੇ ਰਸਤੇ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਕੱਢ ਦਿੱਤਾ। ਜਦੋਂ ਸਾਧਾ ਥਾਣੇ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਿਕਲਿਆ ਤਾਂ ਉਹਦਾ ਥੈਲਾ ਪਹਿਲਾਂ ਨਾਲੋਂ ਹਲਕਾ ਹੋ ਗਿਆ ਸੀ।
ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਥਾਣੇਦਾਰ ਦੀ ਕਰਤੂਤ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗ ਗਿਆ। ਉਹ ਫਿਰ ਤੋਂ ਸਾਧੇ ਮਗਰ ਭੱਜ ਤੁਰੇ।
ਸਾਧੇ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਜਾਨ ਫਿਰ ਤੋਂ ਕੁੜੱਕੀ ਵਿਚ ਫਸੀ ਲੱਗੀ। ਉਹ ਘਬਰਾ ਗਿਆ। ਉਹਨੂੰ ਡਰ ਸੀ ਕਿ ਜੇ ਫੜਿਆ ਗਿਆ ਤਾਂ ਲੋਕ ਉਹਨੂੰ ਜ਼ਿੰਦਾ ਨਹੀਂ ਛੱਡਣਗੇ। ਉਹਨੇ ਆਪਣਾ ਸਾਰਾ ਜ਼ੋਰ ਲਾਇਆ ਤੇ ਭੱਜ ਕੇ ਵੱਡੇ ਲੀਡਰ ਦੀ ਕੋਠੀ ਵਿਚ ਦਾਖਲ ਹੋ ਗਿਆ।
ਜਦੋਂ ਤਕ ਲੋਕ ਲੀਡਰ ਦੀ ਕੋਠੀ ਉੱਤੇ ਪਹੁੰਚ ਕੋਈ ਕਾਰਵਾਈ ਕਰਦੇ, ਉਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਸਾਧੇ ਨੂੰ ਪਿਛਲੇ ਦਰਵਾਜੇ ਤੋਂ ਕਾਰ ਰਾਹੀਂ ਭਜਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ।
ਸਾਧਾ ਜਦੋਂ ਆਪਣੇ ਟਿਕਾਣੇ ਉੱਤੇ ਪਹੁੰਚਿਆ, ਉਹਦੇ ਥੈਲੇ ਵਿਚ ਕੁੱਝ ਜ਼ੇਵਰ ਹੀ ਬਚੇ ਸਨ।
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Sunday, May 3, 2009

ਜਸ਼ਨ


ਫੌਜ ਤੇ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਦੀ ਦੋ ਦਿਨਾਂ ਦੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਸਫਲ ਹੋਈ। ਸੱਠ ਫੁੱਟ ਡੂੰਘੇ ਟੋਏ ਵਿਚ ਡਿੱਗੇ ਨੰਗੇ ਬਾਲਕ ਪ੍ਰਿੰਸ ਨੂੰ ਸਹੀ ਸਲਾਮਤ ਬਾਹਰ ਕੱਢ ਲਿਆ ਗਿਆ। ਉੱਥੇ ਹਾਜ਼ਰ ਰਾਜ ਦੇ ਮੁੱਖ ਮੰਤਰੀ ਤੇ ਪ੍ਰਸ਼ਾਸਨ ਨੇ ਸੁੱਖ ਦਾ ਸਾਹ ਲਿਆ। ਬੱਚੇ ਦੇ ਮਾਂ-ਬਾਪ ਤੇ ਲੋਕ ਖੁਸ਼ ਸਨ।

ਦੀਨ ਦੁਨੀਆ ਤੋਂ ਬੇਖ਼ਬਰ ਇਲੈਕਟ੍ਰਾਨਿਕ ਮੀਡੀਆ ਦੋ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਲਗਾਤਾਰ ਇਸ ਘਟਨਾ ਦਾ ਸਿੱਧਾ ਪ੍ਰਸਾਰਨ ਕਰ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਮੁੱਖ ਮੰਤਰੀ ਦੇ ਤੁਰ ਜਾਣ ਨਾਲ ਸਾਰਾ ਮਜਮਾ ਖਿੰਡਣ ਲੱਗਾ। ਕੁਝ ਹੀ ਦੇਰ ਵਿਚ ਜਸ਼ਨ ਵਾਲਾ ਮਾਹੌਲ ਮਾਤਮੀ ਜਿਹਾ ਹੋ ਗਿਆ। ਟੀ.ਵੀ. ਪੱਤਰਕਾਰਾਂ ਦੇ ਜੋਸ਼ੀਲੇ ਚਿਹਰੇ ਹੁਣ ਮੁਰਝਾਏ ਜਿਹੇ ਲੱਗ ਰਹੇ ਸਨ। ਆਪਣਾ ਸਾਜੋਸਮਾਨ ਸਮੇਟ ਕੇ ਤੁਰਨ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਕਰ ਰਹੇ ਇਕ ਚੈਨਲ ਦੇ ਪੱਤਰਕਾਰ ਕੋਲ ਨਾਲ ਦੇ ਪਿੰਡ ਦਾ ਇਕ ਨੌਜਵਾਨ ਆਇਆ ਤੇ ਬੋਲਿਆ, ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ’ਚ ਵੀ ਅਜਿਹਾ ਹੀ …

ਨੌਜਵਾਨ ਦੀ ਗੱਲ ਪੂਰੀ ਹੋਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਪੱਤਰਕਾਰ ਦੇ ਮੁਰਝਾਏ ਚਿਹਰੇ ਉੱਤੇ ਚਮਕ ਆ ਗਈ, ਕੀ ਤੁਹਾਡੇ ਪਿੰਡ ’ਚ ਵੀ ਬੱਚਾ ਟੋਏ ’ਚ ਡਿੱਗ ਪਿਆ ?

ਨਹੀਂ।

ਨੌਜਵਾਨ ਦੇ ਉੱਤਰ ਨਾਲ ਪੱਤਰਕਾਰ ਦਾ ਚਿਹਰਾ ਫਿਰ ਬੁਝ ਗਿਆ, ਤਾਂ ਫਿਰ ਕੀ ?

ਸਾਡੇ ਪਿੰਡ ’ਚ ਵੀ ਅਜਿਹਾ ਹੀ ਇਕ ਟੋਆ ਨੰਗਾ ਪਿਐ।ਨੌਜਵਾਨ ਨੇ ਦੱਸਿਆ।

ਤਾਂ ਫਿਰ ਮੈਂ ਕੀ ਕਰਾਂ ?ਪੱਤਰਕਾਰ ਖਿੱਝ ਕੇ ਬੋਲਿਆ।

ਤੁਸੀਂ ਮਹਿਕਮੇ ’ਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿਉਂਗੇ ਤਾਂ ਉਹ ਟੋਆ ਬੰਦ ਕਰ ਦੇਣਗੇ। ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਉਸ ’ਚ ਕਦੇ ਵੀ ਕੋਈ ਬੱਚਾ ਡਿੱਗ ਸਕਦੈ ।

ਪੱਤਰਕਾਰ ਦੇ ਚਿਹਰੇ ਉੱਤੇ ਫਿਰ ਥੋੜੀ ਰੌਣਕ ਆ ਗਈ। ਉਸਨੇ ਆਪਣਾ ਕਾਰਡ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਫੜਾਉਂਦੇ ਹੋਏ ਹੋਲੇ ਜਿਹੇ ਕਿਹਾ, ਨਿਗ੍ਹਾ ਰੱਖੀਂ, ਜਿਵੇਂ ਹੀ ਕੋਈ ਬੱਚਾ ਉਸ ਟੋਏ ’ਚ ਡਿੱਗੇ, ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਨੰਬਰ ’ਤੇ ਫੋਨ ਕਰਦੀਂ। ਮੈਂ ਤੈਨੂੰ ਇਨਾਮ ਦਿਵਾ ਦਿਆਂਗਾ।

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