Wednesday, July 1, 2009

तुम्हारे नाम…












पत्र
जो मन से लिखे जाते हैं
वो कहाँ
तुम तक पहुँच पाते हैं।
पत्र तो
बहुत लिखता हूँ
पत्र तो
रोज लिखता हूँ
मगर पत्र
जब कागज़ पर लिखता हूँ
तब मस्तिष्क
नीचे उतर आता है
फिर उसी द्वारा
पत्र लिखा जाता है
मस्तिष्क
जो संवेदनहीन होता है
मस्तिष्क
जो तर्कशील होता है
वह
प्रवेशद्वार पर ही
प्रहरी बैठा देता है
आदरणीय, सादर, आभार
सरीखे अनेक हथियार
उन्हें थमा देता है
मन को पास नहीं
फटकने देता
उसे दूर, बहुत दूर
भगा देता है।
शब्द फिर सीधे
दिमाग से आते हैं
और पत्र पर
बिछते चले जाते हैं
शब्द
जो अनुशासन में बंधे होते हैं
शब्द
जो न गुनगुनाते हैं
शब्द
जो न गुदगुदाते हैं
पत्र बस
शब्दों का जंगल भर
नज़र आते हैं
ये पत्र
आँसुओं से भीगे
भी नहीं होते
आँसू
जो शब्दों का
रूप बदल देते हैं
आँसू
जो शब्दों के
अर्थ बदल देते हैं
तभी ये पत्र
न हंसते हैं
न मुस्कराते हैं
न रोते हैं
न रुलाते हैं
समाचार पत्र की तरह
बस डाक से जा कर
समाचार पहुँचाते हैं।
पत्र
जो मन से लिखे जाते हैं
वो कहाँ
तुम तक पहुँच पाते हैं।
*****

7 comments:

ओम आर्य said...

pyara our sneh se bhara patra aisa hi hota hai ...................

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

ਸ਼ਿਆਮ ਸੁੰਦਰ ਅਗਰਵਾਲ said...

ब्लाग पर आने और हौसलाअफजाई के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

Udan Tashtari said...

उम्दा अभिव्यक्ति!!

सहज साहित्य said...

पत्र की पूरई सोच कविता में पिरो दी है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

सुभाष नीरव said...

भाई आपके कवि रूप को तो आज जाना। अच्छा लगा। अच्छी कविता है पत्रों को लेकर। बधाई !

डॉ. पूनम गुप्त said...

namskar ji, aapki kavita prhi. bahut achhi lagi.aapki laghukthaayen to prhti hi rahti hu pr aapke kavi roop ke bare mein pta nahi tha .
poonam gupta