Saturday, May 16, 2009

संतू



प्रोढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बालटी उठा जब सीढ़ियां चढ़ने लगा तो मैने उसे सचेत किया, “ध्यान से चढ़ना! सीढ़ियों में कई जगह से ईंटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।”
“चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियां चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।”
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बालटियां पानी ढ़ोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला। दो रुपए का एक नोट और चाय का एक कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, “तू रोज आकर पानी भर दिया कर।”
चाय की चुस्कियां लेते हुए संतू ने खुश होकर कहा, “रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के! कहते हैं, अभी महीना भर पानी नहीं आता नहर में। मौज हो गई अपनी तो।”
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियां चढ़ जब संतू ने पानी के लिए बालटी मांगी तो पत्नी ने कहा, “अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर नल में पानी आ गया था।”
“नहर में पानी आ गया !” संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों की ओर कदम घसीटने लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों से गिरने की आवाज सुनाई दी। मैने भागकर देखा, संतू आंगन में औंधे मुंह पड़ा था।
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1 comment:

बलराम अग्रवाल said...

सभ्य समाज के सुख मजदूर आदमी से उसका क्या-क्या छीन लेते हैं--इस जैसी अनेक संवेदनाओं को अपने छोटे-से कलेवर में पेश कर सकने वाली 'सन्तू' कालजयी रचना है।