Tuesday, August 18, 2009

रिश्ते










विश्वास का मौसम
ज़रूरत की धरती
’गर मिलें तो
उग ही जाते हैं रिश्ते।
लंबा हो मौसम
हो ज़रख़ेज़ धरती
तो बढ़ते हैं, फलते हैं
खिलखिलाते हैं रिश्ते।
बदले जो मौसम
बदले जो माटी
तो पौधों की भाँति
मर जाते हैं रिश्ते।
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4 comments:

Unknown said...

वाह! रिश्तों की क्या शानदार परिभाषा दी है।

Unknown said...

रिश्तों की वास्तविकता को बहुत सुंदर ढंग से बयान किया है आपने।

Unknown said...

बहुत ही प्यारी और जानदार कविता.

सहज साहित्य said...

रिश्तों की बड़ी सार्थक एवं सूत्रात्मक व्याख्या की गई है।ज़मीन ही रिश्तों की हर तरह की गरमाहट को बचाने में सहायक हो सकती है । मन की बंजर भूमि पर तो कभी रिश्ते जीवित नहीं रह सकते । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'