विश्वास का मौसम
ज़रूरत की धरती
’गर मिलें तो
उग ही जाते हैं रिश्ते।
लंबा हो मौसम
हो ज़रख़ेज़ धरती
तो बढ़ते हैं, फलते हैं
खिलखिलाते हैं रिश्ते।
बदले जो मौसम
बदले जो माटी
तो पौधों की भाँति
मर जाते हैं रिश्ते।
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रिश्तों की बड़ी सार्थक एवं सूत्रात्मक व्याख्या की गई है।ज़मीन ही रिश्तों की हर तरह की गरमाहट को बचाने में सहायक हो सकती है । मन की बंजर भूमि पर तो कभी रिश्ते जीवित नहीं रह सकते । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
4 comments:
वाह! रिश्तों की क्या शानदार परिभाषा दी है।
रिश्तों की वास्तविकता को बहुत सुंदर ढंग से बयान किया है आपने।
बहुत ही प्यारी और जानदार कविता.
रिश्तों की बड़ी सार्थक एवं सूत्रात्मक व्याख्या की गई है।ज़मीन ही रिश्तों की हर तरह की गरमाहट को बचाने में सहायक हो सकती है । मन की बंजर भूमि पर तो कभी रिश्ते जीवित नहीं रह सकते । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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