कमरे के दरवाजा थोड़ा-सा खुला तो किशोर चंद जी भीतर
तक काँप गए। उन्होंने अपनी ओर से बहुत सावधानी बरती थी। सुबह आम से घंटा भर पहले
ही उठ गए थे। टूथब्रश बहुत धीरे-धीरे किया ताकि थोड़ी-सी भी आवाज़ न हो। रसोईघर
में चाय बनाते समय भी कोई खड़का न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा। फिर भी…।
सत्तर वर्ष की उम्र में अब इतनी फुर्ती तो थी नहीं
कि बहू के देखने से पहले, किसी तरह ट्रे और चाय के कपों को छिपा लेते।
बहू उनके सामने आ खड़ी हुई थी, “बाबू जी, क्या बात आज दो कप चाय?“
“नहीं बेटी, चाय तो
एक ही कप बनाई थी, उसे ही दो कपों में डाल लिया।”
गले से डरी हुई सी आवाज निकली।
“और बाबू जी, यह टूटी
हुई ट्रे! आप इसे बार-बार प्रयोग न करें, इसलिए यह तो मैंने डस्ट-बिन में डाल दी
थी, वहाँ से भी निकाल ली आपने।”
“वो क्या है कि बेटी…”
उनसे कुछ कहते नहीं बना। फिर थोड़ा रुक कर बोले, “मैंने इसे साबुन लगा कर अच्छी
तरह धो लिया था।”
अचानक पता नहीं क्या
हुआ कि बहू का स्वर कुछ नर्म हो गया, “बाबू जी, इस टूटी हुई ट्रे में क्या खास है,
मुझे भी तो पता चले”
सिर झुकाए बैठे ही
किशोर चंद जी बोले, “बेटी, यह ट्रे तुम्हारी सास को बहुत पसंद थी। इसलिए हम सदा
इसी ट्रे का प्रयोग करते थे। दोनों शूगर के मरीज थे। पर लाजवंती को फीकी चाय स्वाद
नहीं लगती थी। उसकी चाय थोड़ी चीनी वाली होती। इस ट्रे के दोनो तरफ फूल बने हैं, एक
तरफ बड़ा, दूसरी ओर छोटा। हममें से चाय कोई भी बनाता उसका कप बड़े फूल की ओर रखता
ताकि पहचान रहे…”
“मगर आज ये दो कप?”
“आज हमारी शादी की
सालगिरह है बेटी। इस बड़े फूल की ओर रखे आधा कप चाय में चीनी डाल कर लाया हूँ…लग
रहा था जैसे वह सामने बैठी पूछ रही है–‘चाय में चीनी डाल कर
लाये हो न?” कहते हुए किशोर चंद जी का गला भर आया।
थोड़ी देर कमरे में
खामोशी छाई रही। किशोर चंद ने चाय के कपों
को ट्रे में से उठा कर मेज पर रख दिया। फिर ट्रे उठा कर बहू की ओर बढ़ाते हुए कहा,
“ले, बेटी, इसे डस्ट-बिन में डाल दे, टूटी हुई ट्रे घर में अच्छी नहीं लगती।”
बहू से ट्रे पकड़ी
नहीं गई। उसने ससुर की ओर देखा। वृद्ध आँखों से अश्रु बह रहे थे।
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