Thursday, May 13, 2010

गिद्ध




कोसी धूप में बैठे चारों मित्र शनिवार की छुट्टी का आनंद ले रहे थे। सभी अपने-अपने दफ्तर में काम करने वाली लड़कियों के किस्से छेड़े हुए थे। पास में रखा ट्रांजिस्टर फिल्मी गीत सुना रहा था। ट्रांजिस्टर ने अचानक गीत बंद कर वयोवृद्ध नेता, महान स्वतंत्रता सेनानी तथा समाजसेवी ‘आज़ाद जी’ के निधन का शोक-समाचार सुनाया तो सभी को गहरा आघात लगा।
“आज़ाद जी ने देश व समाज को इतना कुछ दिया, थोड़ा हमें भी दे जाते!” पहले ने अपना दुख व्यक्त किया।
“इसे मरना तो था ही, दो दिन और ठहर जाता। भला शनिवार भी कोई मरने का दिन है!” दूसरे की आवाज में झुंझलाहट थी।
“बुढ्ढा दो दिन न सही, एक दिन तो और सांस खींच ही सकता था। रविवार को मरता तो सोमवार की तो सरकार छुट्टी करती ही।” यह तीसरा था।
“आज़ाद जिस दिन बीमार हो अस्पताल पहुँचा, मैं तो उसी दिन से इसकी मौत पर दो छुट्टियों की आस लगाए बैठा था। सोचा था, एक-आध छुट्टी और साथ मिला कर कहीं घूम-फिर आयेंगे। पर इसने सारी उम्मीदों पे पानी फेर दिया!” चौथे ने कहा तो वे सभी गहरे गम में डूब गए।
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